श्री अजितनाथ चालीसा लिरिक्स | SHRI AJITNATH CHALISA LYRICS |

श्री अजितनाथ चालीसा लिरिक्स
 | SHRI AJITNATH CHALISA LYRICS |

अष्टकर्म को नाशकर, बने सिद्ध भगवान,
उनके चरणों मे करू, शत-शत बार प्रणाम।
पुन: सरस्वति मात को, ज्ञानप्राप्ति के हेतु,
नमन करू सिर नाय के, श्रद्धा भक्ति समेत।
अजितनाथ भगवान ने, जीते विषय-कषाय,
उनकी गुणगाथा कहू, पद अजेय मिल जाय।
चौपाई
जीत लिया इन्द्रिय विषयों को,
नमन करू उन अजितप्रभू को।
गर्भ में आने के छह महिने,
पहले से ही रत्न बरसते।
श्री-ह्री आदि देवियां आती,
सेवा करती जिनमाता की।
तीर्थ अयोध्या की महारानी,
माता विजया धन्य कहाई।
उनने देखे सोलह सपने,
ज्येष्ठ कृष्ण मावस की तिथि मे।
प्रात: पति श्री जितशत्रू से,
उन स्वप्नों के फल पूछे थे।
वे बोले-तुम त्रिभुवनपति की,
जननी होकर पूज्य बनोगी।
माता विजया अति प्रसन्न थी,
जीवन सार्थक समझ रही थी।
नौ महिने के बाद भव्यजन,
माघ शुक्ल दशमी तिथि उत्तम।
अजितनाथ तीर्थंकर जन्मे,
स्वर्ण सदृश वे चमक रहे थे।
प्रभु के लिए वस्त्र-आभूषण,
स्वर्ग से ही आते हैं प्रतिदिन।
भोजन भी स्वर्गों से आता,
इन्द्र सदा सेवा में रहता।
प्रभु अनेक सुख भोग रहे थे,
राज्यकार्य को देख रहे थे।
इक दिन उल्कापात देखकर,
हो गए वैरागी वे प्रभुवर।
वह तिथि माघ शुक्ल नवमी थी,
नम: सिद्ध कह दीक्षा ले ली।
इक हजार राजा भी संग में,
नग्न दिगम्बर मुनी बन गए।
वे मुनि घोर तपस्या करते,
जंगल-पर्वत-वन-उपवन में।
दीक्षा के पश्चात् सुनो तुम,
मौन ही रहते तीर्थंकर प्रभु।
दिव्यध्वनि में खिरती वाणी,
जो जन-जन की है कल्याणी।
अजितनाथ तीर्थंकर प्रभु जी,
शुद्धात्मा में पूर्ण लीन थे।
ध्यान अग्नि के द्वारा तब ही,
जला दिया कर्मों को झट ही।
पौष शुक्ल ग्यारस तिथि आई,
प्रभु ने ज्ञानज्योति प्रगटाई।
उस आनन्द का क्या ही कहना,
जहां नष्ट है कर्मघातिया।
वे प्रभु अन्तर्यामी बन गए,
ज्ञानानन्द स्वभावी हो गए।
धर्मामृत वर्षा के द्वारा,
प्रभु ने किया जगत उद्धारा।
बहुत काल तक समवसरण मे,
भव्यों को सम्बोधित करते।
पुन: चैत्र शुक्ला पंचमि को,
प्रभु ने पाया पंचमगति को।
पंचकल्याणक के स्वामी वे,
पंचभ्रमण से छूट गए अब।
हाथी चिन्ह सहित प्रभुवर की,
ऊँचाई अठरह सौ कर है।
इन प्रभुवर को हम नित वंदे,
पाप नष्ट हो जाए जिससे।
अजितनाथ की टोंक अयोध्या में,
निर्मित है मंदिर भैया।
उसमें प्रतिमा अति मनहारी,
शोभ रही हैं प्यारी-प्यारी।
गणिनी ज्ञानमती माता की,
प्रबल प्रेरणा प्राप्त हुई है।
वर्षो से इच्छा थी उनकी,
इच्छा पूरी हुई मात की।
अजितनाथ तीर्थंकर प्रभु की,
जितनी भक्ति करें कम ही है।
हे प्रभु मुझको ऐसा वर दो,
तन में कोई रोग नहीं हो।
क्योंकी नीरोगी तन से ही,
अधिक साधना हो संयम की।
संयम इक अनमोल रतन है,
मिलता है बहुतेक जतन से।
इससे कभी न डरना तुम भी,
इसको धारण करना इक दिन।
यही भाव निशदिन करने से,
तिरे 'सारिका' भवसमुद्र से।
सोरठा
जो अजितनाथ तीर्थंकर का,
चालीसा चालिस बार पढ़े।
वे हर कार्यों में सदा-सदा ही,
शीघ्र विजयश्री प्राप्त करे।
चारित्रचन्द्रिका गणिनी,
ज्ञानमती माता की शिष्या है।
प्रज्ञाश्रमणी चन्दनामती,
माता की मिली प्रेरणा है।
यद्यपि अति अल्पबुद्धि फिर भी,
गुरु आज्ञा शिरोधार्य करके।
लिख दिया समझ में जो आया,
विद्वज्जन त्रुटि सुधार कर ले।
इस चालीसा को पढ़ने से,
इक दिन कर्मों को जीत सके।
शाश्वत सुख की हो प्राप्ती,
भव्यों को ऐसा पुण्य मिले।  

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