श्री धर्मनाथ चालीसा लिरिक्स | SHRI DHARMNATH CHALISA LYRICS |

श्री धर्मनाथ चालीसा लिरिक्स
 | SHRI DHARMNATH CHALISA LYRICS |

उत्तम क्षमा आदि दस धर्मी,
प्रगटे मूर्तिमान श्री धर्म।
जग से हरण हरे सब अधर्म,
शाश्वत सुरव दे प्रभुवर धर्म।
नगर रत्नपुर के शासक थे,
भूपति भानु प्रजापालक थे।
महादेवी सुव्रता अभिन्न,
पुत्र-अभाव से रहतीं खिन्न।
'प्राचेतस' मुनि अवधिलीन,
मात-पिता को धीरज दीन।
पुत्र तुम्हारे हों क्षेमकर,
जग में कहलायें तीर्थंकर।
धीरज हुआ दम्पति-मन मे,
साधु-वचन हों सत्य जगत मे।
'मोह 'सुरम्य' विमान से तजकर,
जननी उदर बसे प्रभु आकर।
तत्क्षण सब देवों के परिकर,
गर्भकल्याणक करें खुश होकर।
तेरस माघ मास उजियारी,
जन्मे तीन ज्ञान के धारी।
तीन भुवन द्युति छाई न्यारी,
सब ही जीवों को सुखकारी।
माता को निद्रा में सुलाकर,
लिया शची ने गोद में आकर।
मेरु पर अभिषेक कराया,
'धर्मनाथ' शुभ नाम धराया।
देख शिशु-सौन्दर्य अपार,
किये इन्द्र ने नयन हजार।
बीता बचपन यौवन आया,
अद्भुत आकर्षक तन पाया।
पिता ने तब युवराज बनाया,
राज-काज उनको समझाया।
चित्र श्रृंगारवती का लेकर,
दूत सभा में बैठा आकर।
स्वयंवर हेतु निमन्त्रण देकर,
गया नाथ की स्वीकृति लेकर।
मित्र प्रभाकर को संग लेकर,
कुण्डिनपुर को गए धर्म-वर।
शृंगारवती ने वरा प्रभु को,
पुष्पक यान पे आए घर को।
मात-पिता करें हार्दिक प्यार,
प्रजाजनों ने किया सत्कार।
सर्वप्रिय था उनका शासन,
नीति सहित करते प्रजापालन।
उल्कापात देखकर एक दिन,
भोग-विमुख हो गए श्री जिन।
सुत 'सुधर्म' को सौंपा राज,
शिविका में प्रभु गए विराज।
चलते संग सहस नृपराज,
गए शालवन में जिनराज।
शुक्ल त्रयोदशी माघ महीना,
सन्ध्या समय मुनि पदवी गहीना।
दो दिन रहे ध्यान में लीना,
दिव्य दीप्ति धरें वस्त्र विहीना।
तीसरे दिन हेतु आहार,
पाटलिपुत्र को हुआ विहार।
अन्तराय बत्तीस निखार,
धन्यसेन नप दें आहार।
मौन अवस्था रहती प्रभु की,
कठिनतपस्या एक वर्ष की।
पूरणमासी पौष मास की,
अनुभूति हुई दिव्याभास की।
चतुर्निकाय के सुरगणआये,
उत्सव ज्ञानकल्याण मनाये।
समोशरण निर्माण कराये,
अन्तरिक्ष में प्रभु पधराये।
निरक्षरी कल्याणी वाणी,
कर्णपुटों से पीतें प्राणी।
जीव जगत में जानो अनन्त,
पुद्गल तो है अनन्तानन्त।
धर्म-अधर्म और नभ एक,
काल समेत द्रव्य षट देख।
रागमुक्त हो जाने रूप,
शिवसुख उसको मिले अनूप।
सुन कर बहुत हुए व्रतधारी,
बहुतों ने जिन दीक्षाधारी।
आर्यखण्ड में हआ विहार,
भूमण्डल में धर्म प्रचार।
गढ़ सम्मेद गए आखिर मे,
लीन हुए निज अन्तरंग मे।
शुक्लध्यान का हुआ प्रताप,
हुए अघाति-घात निष्पाप।
नष्ट किए जग के सन्ताप,
मुक्तिमहल में पहूंचे आप।
ज्येष्ठ चतुर्थी शुक्ल पक्षवर,
पूजा करे सुर कूट सुदत्तवर।
लक्षण 'वज्रदण्ड' शुभ जान,
हुआ धर्म से धर्म का 'मान'।
जो प्रति दिन प्रभु के गुण गाते,
'अरुणा' वे भी शिवसुख पाते। 

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